इंदौर के शंकराचार्य मठ में नित्य प्रवचन:नया पाने के लिए पुराना छोड़ना होगा, पर संस्कार और मर्यादा न छूटे- डॉ. गिरीशानंदजी महाराज

कुछ भी नया करने और नया पाने के लिए पुराना छोड़ना पड़ता है। आत्मा भी नया शरीर प्राप्त करने के लिए पुराने शरीर को छोड़ देती है। जैसे व्यक्ति पुराना कपड़ा छोड़ देता है, सांप केंचुली छोड़ देता है, उसी तरह हमें भी रूढ़िवादिता, अंधविश्वास को छोड़कर नया अपनाना चाहिए। परंतु ध्यान रहे कि इस नए के साथ हमारे संस्कार और पुरानों की मर्यादा न छूट जाए। एरोड्रम क्षेत्र में दिलीप नगर स्थित शंकराचार्य मठ इंदौर के अधिष्ठाता ब्रह्मचारी डॉ. गिरीशानंदजी महाराज ने अपने प्रवचन में गुरुवार को यह बात कही। डॉ. गिरीशानंदजी महाराज ने कहा समाज में परिवतर्तन होना चाहिए, परिवर्तन हो भी रहे हैं, पर जिस तरह का परिवर्तन आज की युवा पीढ़ी शास्त्र-पुराणों के नियमों और बड़े-बूढ़ों की मर्यादा को ताक पर रखकर कर रहे हैं, यह उनके सामने भविष्य में एक दिन प्रश्नवाचक चिन्ह होकर खड़ा हो जाएगा। शक्कर के ढेर में भी मीठे से वंचित महाराजश्री ने एक दृष्टांत सुनाया- विध्यांचल पर्वत पर दो चिंटियां रहती थीं। एक चिंटी पहाड़ की चोटी के उत्तर की तरफ और दूसरी दक्षिण की तरफ रहती थी। एक का घर शक्कर के ढेर में था, दूसरी नमक के ढेर में रहती थी। एक दिन शक्कर के ढेर वाली चिंटी ने दूसरी चिंटी को निमंत्रण दिया। कहा- बहन तुम बहुत दिनों से नमक के ढेर में रह रही हो, मेरे यहां चलो, वहां शक्कर ही शक्कर है। शक्कर खाकर मुंह मीठा करो और अपना जीवन सफल करो। दूसरी चिंटी ने निमंत्रण स्वीकारा और वह पहली चिंटी के घर पहुंच गई। चिंटी ने घुमा-फिराकर उसे अपना पूरा घर दिखाया और कहा- खूब शक्कर खाओ, यहां किसी बात की कमी नहीं है। चिंटी इधर-उधर भागती फिरी और शाम को पहली चिंटी को यह कहकर चली गई कि बहन तुमने मुझे धोखा दिया। यदि शक्कर तुम्हारे पास नहीं थी तो मुझे निमंत्रण ही क्यों दिया। वहां पास में ही एक संत कुटिया में शिष्यों सहित निवास करते थे। शिष्य ने चिंटियों का यह माजरा देखा तो गुरु से पूछा- कि शक्कर के ढेर पर घूमने पर भी चिंटी को शक्कर का पता क्यों नहीं लगा। संत ने कहा कारण यह है कि वह चिंटी अपने मुंह में नमक का टुकड़ा दबाए हुए थी। इसलिए उसे मिठास का आभास ही नहीं हो पाया। इसी तरह जो लोग अपने संस्कार नहीं बदलते, आत्मशोधन द्वारा अपनी बुराइयां नहीं हटाते, वे परमात्मा के पास होते हुए भी उसकी कृपा से वंचित रह जाते हैं। इससे यह सीख मिलती है कि नया पाने के लिए पुराना हटाने का नियम अनिवार्य और अटल है।

इंदौर के शंकराचार्य मठ में नित्य प्रवचन:नया पाने के लिए पुराना छोड़ना होगा, पर संस्कार और मर्यादा न छूटे- डॉ. गिरीशानंदजी महाराज
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कुछ भी नया करने और नया पाने के लिए पुराना छोड़ना पड़ता है। आत्मा भी नया शरीर प्राप्त करने के लिए पुराने शरीर को छोड़ देती है। जैसे व्यक्ति पुराना कपड़ा छोड़ देता है, सांप केंचुली छोड़ देता है, उसी तरह हमें भी रूढ़िवादिता, अंधविश्वास को छोड़कर नया अपनाना चाहिए। परंतु ध्यान रहे कि इस नए के साथ हमारे संस्कार और पुरानों की मर्यादा न छूट जाए। एरोड्रम क्षेत्र में दिलीप नगर स्थित शंकराचार्य मठ इंदौर के अधिष्ठाता ब्रह्मचारी डॉ. गिरीशानंदजी महाराज ने अपने प्रवचन में गुरुवार को यह बात कही। डॉ. गिरीशानंदजी महाराज ने कहा समाज में परिवतर्तन होना चाहिए, परिवर्तन हो भी रहे हैं, पर जिस तरह का परिवर्तन आज की युवा पीढ़ी शास्त्र-पुराणों के नियमों और बड़े-बूढ़ों की मर्यादा को ताक पर रखकर कर रहे हैं, यह उनके सामने भविष्य में एक दिन प्रश्नवाचक चिन्ह होकर खड़ा हो जाएगा। शक्कर के ढेर में भी मीठे से वंचित महाराजश्री ने एक दृष्टांत सुनाया- विध्यांचल पर्वत पर दो चिंटियां रहती थीं। एक चिंटी पहाड़ की चोटी के उत्तर की तरफ और दूसरी दक्षिण की तरफ रहती थी। एक का घर शक्कर के ढेर में था, दूसरी नमक के ढेर में रहती थी। एक दिन शक्कर के ढेर वाली चिंटी ने दूसरी चिंटी को निमंत्रण दिया। कहा- बहन तुम बहुत दिनों से नमक के ढेर में रह रही हो, मेरे यहां चलो, वहां शक्कर ही शक्कर है। शक्कर खाकर मुंह मीठा करो और अपना जीवन सफल करो। दूसरी चिंटी ने निमंत्रण स्वीकारा और वह पहली चिंटी के घर पहुंच गई। चिंटी ने घुमा-फिराकर उसे अपना पूरा घर दिखाया और कहा- खूब शक्कर खाओ, यहां किसी बात की कमी नहीं है। चिंटी इधर-उधर भागती फिरी और शाम को पहली चिंटी को यह कहकर चली गई कि बहन तुमने मुझे धोखा दिया। यदि शक्कर तुम्हारे पास नहीं थी तो मुझे निमंत्रण ही क्यों दिया। वहां पास में ही एक संत कुटिया में शिष्यों सहित निवास करते थे। शिष्य ने चिंटियों का यह माजरा देखा तो गुरु से पूछा- कि शक्कर के ढेर पर घूमने पर भी चिंटी को शक्कर का पता क्यों नहीं लगा। संत ने कहा कारण यह है कि वह चिंटी अपने मुंह में नमक का टुकड़ा दबाए हुए थी। इसलिए उसे मिठास का आभास ही नहीं हो पाया। इसी तरह जो लोग अपने संस्कार नहीं बदलते, आत्मशोधन द्वारा अपनी बुराइयां नहीं हटाते, वे परमात्मा के पास होते हुए भी उसकी कृपा से वंचित रह जाते हैं। इससे यह सीख मिलती है कि नया पाने के लिए पुराना हटाने का नियम अनिवार्य और अटल है।